विधुत वायरिंग का निरिक्षण | Inspection of electrical wiring

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विधुत वायरिंग का निरिक्षण | Inspection of electrical wiring

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किसी भवन, कार्यशालाया या उधोगशाला में नई विधुत वायरिंग करने अथवा वायरिंग को सुधारने या रूप बदलने के पश्चात व उपयोग में लेने से पूर्व किसी कुशल अनुज्ञाधारी विधुत्कार (Licensee Electrician) या निरीक्षक द्वारा वायरिंग का निरिक्षण करना आवश्यक होता है | वायरिंग का निरिक्षण अन्य परिस्थितियों में भी किया जा सकता है, जैसे नया घर/भवन खरीदने के बाद |

वायरिंग के निरिक्षण ( Inspection of electrical wiring ) के दौरान निरिक्षक को निम्न बिन्दुओं के अनुसार जांच करनी चाहिए :-

  1. न्यूट्रल लाइन में फ्यूज ना लगाकर लिंक लगाये गए हों |
  2. सार्वजानिक स्थानों पर शटर प्रकार के सॉकेट उपयोग किये गए हों |
  3. जंक्शन व वितरण बॉक्स इतने बड़े हों कि उनमें तार व लगाये गए उपकरण आसानी से समायोजित हो सकें |
  4. जंक्शन व वितरण बॉक्सों के फालतू छिद्रों को बंद कर दिया गया हो |
  5. वायरिंग में प्रयोग किये गए पेंच चपटी टोपी वाले हों |
  6. उधोगशालाओं की वायरिंग में स्विच, ब्रेकेट व सीलिंग रोज इत्यादि के लिए लकड़ी के बोर्डों का उपयोग नहीं किया गया हो |
  7. उधोगशालाओं की वायरिंग में लोह कन्ड्यूट पाइप का उपयोग किया गया हो तथा उसे अर्थ किया गया हो | कन्ड्यूट पाइप का उपयोग ना करने की स्थिति में आर्मर्ड केबल का उपयोग किया गया हो |
  8. लोह कन्ड्यूट के सिरों पर लकड़ी या एबोनाईट के बुश लगाये गए हों जिससे तार को खेंचते समय उनका इंसुलेशन ख़राब ना हो |
  9. कन्ड्यूट पाइपों में तार/केबल्स की संख्या BIS-732-1982 के अनुसार हो |
  10. लाइटिंग व फैन तथा पॉवर परिपथों में सभी प्लग 3 पिन वाले प्रयोग किये गए हों तथा तीसरी पिन को अर्थ किया गया हो |
  11. प्लगों के लिए अलग से अर्थ तार स्थापित किया गया हो |
  12. जहां तारों/केबल्स को पेचों अथवा नट-बोल्ट से कसा गया हो वहां वासर तथा उसके ऊपर स्प्रिंग वासर लगाये गए हों |
  13. जहां तारों/केबल्स को पेचों अथवा नट-बोल्ट से कसा गया हो वहां केबल्स के सभी सिरों पर लग्स लगाये गए हों तथा केबल के किसी भी तार को लग्स के बाहर नहीं छोड़ा गया हो |
  14. तारों व केबलों के क्रासिंग बिन्दुओं पर जंक्शन बॉक्स लगाये गए हों |
  15. जहां आवश्यक हो वहां चेतावनी चिन्ह लगाये गए हों |
  16. सभी अर्थ बिंदु अच्छी तरह कसे गए हों |

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कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया | Artificial respiration process

Artificial respiration process

कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया | Artificial respiration process

जब किसी दुर्घटना (जैसे आग लगने के कारण दम घुटना, बिजली का झटका लगना व पानी में डूबना इत्यादि) के कारण कोई व्यक्ति स्वयं स्वांस लेने में सक्षम नहीं होता है तो उसकी जान बचाने के लिए उसे कृत्रिम स्वांस दी जाती है |

कृत्रिम श्वसन एक नकली श्वसन की तरह है जिसे हम पीड़ित व्यक्ति की स्वांस प्राकृतिक रूप से शुरू होने तक देते है उसके कुछ समय पश्चात कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया बंद कर दी जाती है, लेकिन प्राकृतिक श्वसन शुरू होने के बाद भी पीड़ित पर ध्यान रखना चाहिए क्योंकि कई बार पीड़ित की स्वांस फिर से बंद हो जाती है | किसी भी व्यवसाय, उधोग तथा कार्यशाला में कार्मिकों तथा प्रशिक्षार्थियों को कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया का प्रशिक्षण देना आवश्यक है जिससे आवश्यकता पड़ने पर वे पीड़ित को कृत्रिम स्वांस देकर उसकी जान बचा सकें |

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कृत्रिम श्वसन की मुख्य 4 विधियां जिनका वर्णन निम्न प्रकार है :-

Artificial respiration process

  1. मुहं से मुहं अथवा लाबोर्ड विधि | Mouth to mouth or laborde method
  2. सिल्वेस्टर विधि | Sylvester method
  3. शैफर विधि | Schaffer method
  4. कृत्रिम श्वसन यंत्र द्वारा | By Artificial respiration instrument

1. मुहं से मुहं अथवा लाबोर्ड विधि | Mouth to mouth or laborde method

पीड़ित की पसलियां या सीने की कोई हड्डी टूटने की स्थिति में कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया की मुहं से मुहं अथवा लाबोर्ड विधि ही सर्वोत्तम विधि है | इस विधि में पीड़ित के मुहं में से हवा देने पर उसके फेंफडों में हवा जाती है तथा मुहं हटा लेने पर फेंफडों की हवा बाहर निकल जाती है | यह सबसे अधिक प्रचलित तथा प्रभावशाली विधि है | इस विधि को तुरंत शुरू किया जा सकता है | 

इस विधि की प्रक्रिया निम्न प्रकार है :-

  • सर्वप्रथम पीड़ित के मुहं की जांच करें | मुहं में कोई पदार्थ हो तो उसे निकाल दें, (जैसे गुटखा, सुपारी इत्यादि) जिससे श्वसन मार्ग अवरुद्ध ना हो तथा सुनिश्चित करें की पीड़ित का श्वसन मार्ग साफ़ हो |
  • पीड़ित ने तंग कपड़े पहने हुए हैं तो उन्हें ढीले कर दें |
  • ठण्ड का समय हो तो पीड़ित को कम्बल से ढक दें |
  • पीड़ित के कंधों के नीचे तकिया या कुशन लगाकर थोडा ऊपर उठा दें जिससे मुहं पीछे की और लटक जाये |
  • पीड़ित के बगल में घुटनों के बल बैठ जायें |
  • पीड़ित में मुहं पर एक साफ़ और पतला कपडा डाल दें |
  • पीड़ित की नाक को एक हाथ से बंद करके उसके मुहं में अपने मुहं से झटके से हवा भरें ताकि उसके फेंफडों में हवा भर जाये |
  • अब अपना मुहं हटा लें जिससे पीड़ित के फेंफडों से हवा बाहर निकल जाये |
  •  उक्त प्रक्रिया को एक मिनट में 10-12 बार तब तक दोहराएं जब तक पीड़ित स्वयं स्वांस ना लेने लग जाये |

Artificial respiration process

Mouth to mouth or laborde method of Artificial respiration

2. सिल्वेस्टर विधि | Sylvester method

कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया की सिल्वेस्टर विधि में पीड़ित को पीठ के बल लिटाया जाता है | इस विधि का प्रयोग तब किया जाता है जब पीड़ित के पेट पर छाले पड़े हो, घाव हो अथवा पीड़ित एक गर्भवती महिला हो |

सिल्वेस्टर विधि में पीड़ित के सीने पर दबाव डालने पर फेंफडों के अन्दर की वायु बाहर निकल जाती है तथा दबाव हटाने पर बाहर की वायु अन्दर चली जाती है | सिल्वेस्टर विधि की प्रक्रिया निम्न प्रकार है :-

  • सर्वप्रथम पीड़ित के मुहं की जांच करें | मुहं में कोई पदार्थ हो तो उसे निकाल दें, (जैसे गुटखा, सुपारी इत्यादि) जिससे श्वसन मार्ग अवरुद्ध ना हो तथा सुनिश्चित करें की पीड़ित का श्वसन मार्ग साफ़ हो |
  • पीड़ित ने तंग कपड़े पहने हुए हैं तो उन्हें ढीले कर दें |
  • ठण्ड का समय हो तो पीड़ित को कम्बल से ढक दें |
  • पीड़ित के कंधों के नीचे तकिया या कुशन लगाकर थोडा ऊपर उठा दें |
  • पीड़ित के सिर के पीछे पीड़ित की और मुहं करके घुटनों पर बैठ जायें |
  • पीड़ित के दोनों हाथों को सीधा कर दें |
  • नीचे दिए गए चित्र के अनुसार पीड़ित के हाथों को धीरे-धीरे मोड़कर सीने के पास लायें |
  • अपने दोनों हाथों से पीड़ित के सीने पर 2-3 सेकंड तक दबाव डालकर दबाव हटा दें |
  • इसके पश्चात पीड़ित के दोनों हाथों को ऊपर की और फैलाकर मुट्ठियां खोल दें |
  • उक्त प्रक्रिया को एक मिनट में 10-12 बार तब तक दोहराएं जब तक पीड़ित स्वयं स्वांस ना लेने लग जाये |

Artificial respiration process

Sylvester method of Artificial respiration
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3. शैफर विधि | Schaffer method

कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया की शैफर विधि में पीड़ित को पेट के बल लिटाया जाता है | इस विधि का प्रयोग तब किया जाता है जब पीड़ित की पीठ पर छाले पड़े हो या घाव हो |

शैफर विधि में पीड़ित की पीठ पर दबाव डालने पर फेंफडों के अन्दर की वायु बाहर निकल जाती है तथा दबाव हटाने पर बाहर की वायु अन्दर चली जाती है | शैफर विधि की प्रक्रिया निम्न प्रकार है :-

  • सर्वप्रथम पीड़ित के मुहं की जांच करें | मुहं में कोई पदार्थ हो तो उसे निकाल दें, (जैसे गुटखा, सुपारी इत्यादि) जिससे श्वसन मार्ग अवरुद्ध ना हो तथा सुनिश्चित करें की पीड़ित का श्वसन मार्ग साफ़ हो |
  • पीड़ित ने तंग कपड़े पहने हुए हैं तो उन्हें ढीले कर दें |
  • ठण्ड का समय हो तो पीड़ित को कम्बल से ढक दें |
  • पीड़ित के सिर को एक करवट कर दें |
  • पीड़ित के हाथों को सिर की और सीधा कर दें |
  • चित्र के अनुसार पीड़ित के घुटनों के ऊपर अपने घुटनों के बल बैठ जायें, लेकिन पीड़ित के पैरों पर दबाव ना दें |
  • चित्र के अनुसार अपने दोनों हाथों को पीड़ित की पीठ पर इस प्रकार रखें (घावों को बचाते हुए) कि अंगूठे रीढ़ की तरफ रहें तथा उंगलियां बगल में रहें |
  • अब अपने दोनों हाथों से पीड़ित की पीठ पर 2 सेकेंड के लिए दबाव डाल कर हटा दें |
  • उक्त प्रक्रिया को एक मिनट में 10-12 बार तब तक दोहराएं जब तक पीड़ित स्वयं स्वांस ना लेने लग जाये |

Artificial respiration process

Schaffer method of Artificial respiration

4. कृत्रिम श्वसन यंत्र द्वारा | By Artificial respiration instrument

कृत्रिम श्वसन प्रक्रिया की इस विधि में पीड़ित को पीठ के बल लिटाकर कृत्रिम श्वसन यंत्र द्वारा स्वांस दी जाती है | यह बहुत आसान विधि है |

कृत्रिम श्वसन यंत्र विधि की प्रक्रिया निम्न प्रकार है :-

  • सर्वप्रथम पीड़ित के मुहं की जांच करें | मुहं में कोई पदार्थ हो तो उसे निकाल दें, (जैसे गुटखा, सुपारी इत्यादि) जिससे श्वसन मार्ग अवरुद्ध ना हो तथा सुनिश्चित करें की पीड़ित का श्वसन मार्ग साफ़ हो |
  • पीड़ित ने तंग कपड़े पहने हुए हैं तो उन्हें ढीले कर दें |
  • ठण्ड का समय हो तो पीड़ित को कम्बल से ढक दें |
  • यंत्र को पीड़ित के मुहं पर लगायें |
  • अब यंत्र में दिए गए रबड़ वाल्व को दबाएं तथा छोड़ें | वाल्व को दबाने पर बाहर की हवा फेंफडों के अन्दर जाती है तथा वाल्व को छोड़ने पर फेंफडों की हवा बाहर आती है | (इस यंत्र में इनलेट तथा आउटलेट वाल्व की ऐसी व्यवस्था होती है कि वाल्व को प्रत्येक बार दबाने व छोड़ने पर फेंफडों की हवा वाल्व में ना रहकर बाहर निकल जाती है तथा बाहर की हवा फेंफडों में जाती है |
  • इस प्रक्रिया को एक मिनट में 15-20 बार तब तक दोहराएं जब तक पीड़ित स्वयं स्वांस ना लेने लग जाये |
Artificial respiration instrument

Artificial respiration process

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कार्यशाला में प्राथमिक उपचार व सुरक्षा | First aid and safety in the workshop

First aid and safety in the workshop

कार्यशाला में प्राथमिक उपचार व सुरक्षा | First aid and safety in the workshop

First aid and safety in the workshop

प्राथमिक उपचार :- किसी दुर्घटनाग्रस्त अथवा बीमार व्यक्ति को उचित उपचार मिलने से पूर्व उसकी जान बचाने के लिए उसे प्रारंभिक उपचार तथा सहारा देना प्राथमिक उपचार (First aid) कहलाता है, जैसे र्घटनाग्रस्त अथवा बीमार व्यक्ति को अस्पताल पहुंचने से पहले कुछ छोटे उपचार करना जिससे उसकी जान बच सके, कृत्रिम स्वसन देना, शरीर को आरामदायक स्थिति में लाना आदि |

प्रत्येक कार्यशाला व कारखाने में कार्मिकों व शिक्षार्थियों को प्राथमिक उपचार तथा सुरक्षा से सम्बंधित जानकारी आवश्यक रूप से होनी चाहिए क्योंकि कार्यशाला में कार्य करते समय कभी भी दुर्घटना होने की सम्भावना रहती है | बड़े कारखानों में चिकित्सक भी उपस्थित रहते हैं | प्रबंधन को सभी कर्मचारियों को प्राथमिक उपचार का प्रशिक्षण आवश्यक रूप से देना चाहिए जिससे दुर्घटना होने पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को किसी भी कर्मचारी द्वारा प्राथमिक उपचार देकर उसको बचाया जा सके | औधोगिक प्रशिक्षण संस्थानों में भी सभी शिक्षार्थियों को सुरक्षा तथा प्राथमिक चिकित्सा से सम्बंधित जानकारी होना आवश्यक है |

प्राथमिक उपचार से सम्बंधित दवाएं तथा सामग्री भी आवश्यक रूप से कारखाने तथा कार्यशाला में उपलब्ध होनी चाहियें तथा ये भी ध्यान रखना आवश्यक है कि इन दवाओं तथा चिकित्सा सामग्री की समाप्ति तिथि ना निकली हो |

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प्राथमिक चिकित्सा से सम्बंधित कुछ आवश्यक सामग्री तथा दवाएं निम्न प्रकार हैं जो प्राथमिक चिकित्सा बॉक्स (First aid box) में होनी चाहियें :-

First aid and safety in the workshop

  1. टिंक्चर आयोडीन
  2. मरक्युरी क्रोम
  3. दर्दनाशक दवाई
  4. बेहोशीनाशक दवाई
  5. एलर्जि दूर करने की दवाई
  6. आंख साफ़ करने की सामग्री
  7. आई ड्रॉप
  8. इयर ड्रॉप
  9. एंटीसेप्टिक क्रीम
  10. गर्म पट्टी
  11. दांत दर्द की दवाई
  12. कच्चा प्लास्टर
  13. सेफ्टी पिन
  14. रूई
  15. पट्टियां
  16. जालीदार कपड़ा
  17. केंची
  18. चाकू
  19. लकड़ी की छोटी छड़े
  20. ग्लास
  21. ड्रॉपर
  22. बर्नोल
  23. थर्मामीटर
  24. ऑक्‍सीमीटर
  25. रक्तचाप मापने की मशीन
  26. टिंक्चर बेंजीन
  27. डेटोल

First aid and safety in the workshop

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विधुत के संपर्क में आये व्यक्ति को छुड़ाना एवं उसका प्राथमिक उपचार करना |

जब लगभग 90 वोल्ट विधुत सप्लाई हमारे शरीर के संपर्क में आती है तो उससे शरीर में विधुत धारा का प्रवाह होने लगता है, इस विधुत धारा के प्रवाह के कारण हमें विधुत झटके का अनुभव होता है | विधुत झटके का कारण है, विधुत धारा की गति (3×100000000 मीटर प्रति सेकंड) और हमारे शरीर की नसों में हो रहे रक्त के प्रवाह की गति में आपसी सामंजस्य स्थापित नहीं होना | शरीर में विधुत धारा का प्रवाह होने पर एक छोटे झटके से लेकर जान की हानि भी हो सकती है, इसलिए विधुत कार्य सावधानी तथा गंभीरता व उचित सुरक्षा उपकरणों का उपयोग करते हुए करें |

विधुत के संपर्क में आये व्यक्ति को उतना ही अधिक नुकसान होता है जितने अधिक समय तक वह विधुत के संपर्क में आया है तथा जितनी अधिक धारा का प्रवाह उसके शरीर में से हुआ है | यदि कोई व्यक्ति विधुत के संपर्क में आ गया है तो सर्वप्रथम तुरंत विधुत सप्लाई बंद करें तथा उसे सम्पर्कित बिंदु से दूर हटायें |

अगर तुरंत विधुत सप्लाई बंद करना संभव ना हो तो स्वयं को भूमि से रोधित कर (शुष्क रबर की चप्पल इत्यादि पहन कर) विधुत के संपर्क में आये व्यक्ति को किसी विधुत रोधी पदार्थ जैसे- सूखी लकड़ी का डंडा, प्लास्टिक या रबर इत्यादि से खेंचकर अथवा धकेल कर छुडाएं अथवा इस तरह प्रयास करें की वह व्यक्ति विधुत संपर्क से छूट जाये | विधुत संपर्क से छुडाते समय यह ध्यान रखें की वह व्यक्ति भूमि पर झटके से ना गिरे |

किसी व्यक्ति को विधुत झटका लगने पर निम्न हानियां होने की सम्भावना होती है :-

  • झटके से भूमि पर गिरने से हड्डियों में फ्रेक्चर होना |
  • झटके से भूमि पर गिरने से अथवा करंट के कारण मांस फटने से रक्त का प्रवाह होना |
  • करंट से जलने के कारण शरीर पर छाले होना |
  • करंट से शरीर का मांस अथवा त्वचा का जलना |
  • बेहोश होना
  • स्वांस की गति धीमी होना |
  • ह्रदय गति रुकने के कारण म्रत्यु होना |

विधुत के संपर्क में आये व्यक्ति को छुडाने के पश्चात निम्न प्राथमिक उपचार करें :-

  • सर्वप्रथम एम्बुलेंस को बुलायें अथवा आपातकाल फ़ोन नंबर पर सूचित करें |
  • व्यक्ति के मुहं, स्वांस व नाड़ी की जांच करें |
  • जले स्थान पर नॉनस्टिक गॉज लगाकर ढकें।
  • घावों पर पट्टी बांधें जिससे खून ना बहे |
  • यदि पीड़ित व्यक्ति सांस नहीं ले पा रहा है तो उसे कृत्रिम स्वांस दें | कुछ कृत्रिम स्वसन विधियों के बारे में पढने के लिए लिंक पर क्लिक करें |
  • पीड़ित का मुहं नहीं खुलने की स्थिति में “शैफर विधि” द्वारा स्वांस देने का प्रयास करें |
  • अगर छाती या पेट पर घाव हो गया हो तो “मुहं से मुहं विधि” द्वारा स्वांस देने का प्रयास करें |
  • अगर कमर पर घाव हो गया हो तो “नेल्सन विधि” द्वारा स्वांस देने का प्रयास करें |
  • प्राथमिक उपचार के पश्चात आवश्यकतानुसार नजदीकी अस्पताल में पीड़ित का उपचार करायें |

First aid and safety in the workshop

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कार्यशाला में आग | Fire in workshop

Fire in workshop

कार्यशाला में आग | Fire in workshop

किसी पदार्थ के जलने अथवा दहन को आग कहते हैं | अथवा दहनशील पदार्थों के तेजी से होने वाले ऑक्सीकरण को आग कहते हैं जिसमे अधिक तापमान और प्रकाश पैदा होता है | आग से कई  प्रकार के रासायनिक उत्पाद प्राप्त होते हैं जैसे कार्बनडाईऑक्साइड इत्यादि | अनचाही अग्नि से संभवतः जन-धन की हानि होती हैं 

आग लगने के लिए ऊष्मा, ऑक्सीजन व ईंधन आवश्यक है | इनमे से किसी भी एक की कमी अथवा ना होने की स्थिति में आग बुझ जाती है | इसलिए विभिन्न प्रकार के अग्निशामकों (Fire extinguishers) को इस प्रकार से बनाया जाता है जिससे वो ऊष्मा, ऑक्सीजन अथवा ईंधन में से किसी को भी कम कर सके अथवा हटा सके जिससे आग बुझ जाए |

दूसरे शब्दों में यदि आग लगने पर ऊष्मा, ऑक्सीजन अथवा ईंधन में से किसी एक को भी रोक दिया जाये तो आग बुझ सकती है | इन्हें रोकने का कार्य अग्निशामकों द्वारा किया जाता है | जैसे :-
ऊष्मा (Heat) को रोकने के लिए आग पर पानी का छिड़काव किया जाता है |
ऑक्सीजन (Oxygen)  को रोकने के लिए अग्निशामकों द्वारा कार्बनडाईऑक्साइड आदि का छिड़काव किया जाता है |
ईंधन (Fuel) को रोकने के लिए उस पदार्थ को ही रोक लिया अथवा हटा दिया जाता है जिसमे आग लगी है |

ईंधन के प्रकार के आधार पर आग के निम्न 4 प्रकार होते हैं तथा विभिन्न प्रकार की आग को बुझाने की विधियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं :-

Fire in workshop

  •  ‘A’ श्रेणी अग्नि / Class ‘A’ Fire
  •  ‘B’ श्रेणी अग्नि / Class ‘B’ Fire
  •  ‘C’ श्रेणी अग्नि / Class ‘C’ Fire
  •  ‘D’ श्रेणी अग्नि / Class ‘D’ Fire

A श्रेणी अग्नि / Class A Fire (ठोसों में लगने वाली आग) :-

ये सामान्य प्रकार की अग्नि है | कागज़, कपड़े, लकड़ी, कचरा व प्लास्टिक इत्यादि में लगने वाली आग को ‘A’ श्रेणी आग कहते हैं | इस प्रकार की अग्नि को बुझाना सबसे आसान होता है |

‘A’ श्रेणी आग को बुझाना-
A’ श्रेणी अग्नि को बुझाने का सबसे आसान तरीका है आग पर पानी की बौछार करना, ऑक्सीजन को रोककर या विभिन्न प्रकार के रासायनिक पाउडरों के छिड़काव से भी आग को बुझाया जा सकता है | आग पर पानी की बौछार करते समय पानी को आग पर नीचे की तरफ डालते हुए धीरे-धीरे ऊपर की और डालना चाहिए | आग पर पानी की बौछार बाल्टी द्वारा, नली द्वारा अथवा जलयुक्त अग्निशामक द्वारा की जाती है |

बड़ी अथवा भयंकर आग को बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड का उपयोग किया जाता है | पानी से आग को बुझाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जहां पानी का छिड़काव किया जा रहा है वहां विधुत सप्लाई चालू ना हो अन्यथा विधुत झटका लगने की सम्भावना रहती है |

Class a fire

Fire in workshop

B श्रेणी अग्नि / Class B Fire (द्रवों में लगने वाली आग) :-

ज्वलनशील द्रवों अथवा ऐसे ठोस जो ज्वलनशील द्रव में बदल जाते है जैसे पेट्रोल, केरोसीन, डीजल, शराब, मीथेन, गैसोलीन, प्रोपेन तथा चर्बी इत्यादि में लगने वाली आग ‘B’ श्रेणी अग्नि के अंतर्गत आती है | 

‘B’ श्रेणी अग्नि को बुझाना-
‘B’ श्रेणी आग को पानी से नहीं बुझाया जा सकता है | इस प्रकार की आग को बुझाने के लिए ऑक्सीजन की रोकना आवश्यक होता है इसके लिए कार्बनडाईऑक्साइड अग्निशामक अथवा अग्नि रोधी कम्बल का उपयोग किया जाता है | फोम अथवा सूखे पाउडर को अग्नि के ऊपर छिड़ककर भी अग्नि को बुझाया जा सकता है क्योंकि इससे ऑक्सीजन की सप्लाई बंद हो जाती है |

class b fire

Fire in workshop

C श्रेणी अग्नि / Class C Fire (गैसों में लगने वाली आग) :-

ज्वलनशील गैस में लगने वाली आग ‘C’ श्रेणी अग्नि के अंतर्गत आती है, विधुत उपकरण, विधुत वायरिंग इत्यादि में लगी आग को भी ‘C’ श्रेणी के अंतर्गत रखा गया है | गैस सिलेंडर में लगी आग से विस्फोट होने की सम्भावना रहती है | इस प्रकार की अग्नि बहुत खतरनाक होती है इसलिए आग लगने पर चेतावनी घंटी व सायरन बजा देने चाहियें |

‘C’ श्रेणी अग्नि को बुझाना-
सबसे पहले विधुत सप्लाई को बंद कर दें | सिलेंडर में आग लगने पर कार्बनडाईऑक्साइड व हेलोन अग्निशामक का प्रयोग किया जाता है जिससे ऑक्सीजन की सप्लाई रुकने पर आग बुझ जाती है | विधुत उपकरणों में लगी आग को बुझाने के लिए कार्बनडाईऑक्साइड व शुष्क पाउडर अग्निशामक का प्रयोग किया जाता है | ‘C’ श्रेणी की आग को संभव हो तो प्रशिक्षित लोगों द्वारा बुझाया जाना चाहिए |

class c fire

Fire in workshop

D श्रेणी अग्नि / Class D Fire (धातुओं में लगने वाली आग) :-

ये आग दहनशील धातुओं में लगती है जैसे- मैग्नीशियम, पोटेशियम, टाइटेनियम व सोडियम इत्यादि में लगने वाली आग | जिन उधोगों तथा प्रयोगशालाओं में इन धातुओं का उपयोग होता है वहां इस प्रकार की आग लगने की सम्भावना होती | इस प्रकार की आग से तीव्र अग्नि तथा जहरीली गैसें निकलती हैं | 

‘D’ श्रेणी अग्नि को बुझाना-
‘D’ श्रेणी की आग को बुझाने के लिए पानी का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि पानी से प्रतिक्रिया कर विस्फोट होने की सम्भावना होती है | इस प्रकार की आग को बुझाने के लिए रेत या सूखे पाउडर का उपयोग करना चाहिए तथा कार्बनडाईऑक्साइड, CTC या शुष्क पाउडर प्रकार के अग्निशामक का प्रयोग करना चाहिए | 

class d fire

एक अन्य ‘K’ श्रेणी की आग भी होती है लेकिन यह उधोग अथवा कार्यशाला से सम्बंधित नहीं होने के कारण इसका विस्तार से वर्णन नहीं किया गया है | भोज्य पदार्थों में लगने वाली आग को K श्रेणी की आग कहते हैं जैसे वनस्पति तेल में लगने वाली आग |

Fire in workshop

कार्यशाला में आग लगने पर शरीर जलने अथवा चोट लगने की सम्भावना होती है अतः पीड़ित का प्राथमिक उपचार आवश्यक है जिसका वर्णन हमारी अन्य पोस्ट “कार्यशाला में प्राथमिक उपचार व सुरक्षा” में किया गया है |

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कार्यशाला अथवा कारखाने में आग लगने के कारण
Causes of fire in workshop or factory

यहां पर कुछ कारण दिए गए हैं जिनकी वजह से कार्यशाला या कारखानों में आग लगती है अथवा आग लगने की सम्भावना रहती है |

  • विस्फोटक पदार्थों का भण्डारण लापरवाही से करने अथवा नियमानुसार नहीं करने के कारण |
  • बॉईलर में तापमान नियंत्रण की व्यवस्था सही नहीं होने के कारण |
  • कर्मचारियों अथवा शिक्षार्थियों को सही प्रशिक्षण नहीं देने के कारण |
  • विधुत उपकरणों अथवा लाइन में दोष (Fault) आने के कारण |
  • ज्वलनशील पदार्थों के पास धुम्रपान करने के कारण |
  • ज्वलनशील पदार्थों के पास वैल्डिंग व ग्राइंडिंग इत्यादि करने के कारण |
  • जिन मशीनों में शीतलन की आवश्यकता हो वहां ठीक तरीके से शीतलन की व्यवस्था नहीं करने के कारण |
  • सर्दियों में हाथ तापने के लिए ज्वलनशील पदार्थों के नजदीक आग जलाना अथवा आग जलाने के पश्चात उसे बिना बुझाए ऐसे ही छोड़ देना |
  • ज्वलनशील पदार्थों जैसे गैस सिलेंडर, पेट्रोल, डीजल, केरोसीन आदि का भण्डारण सुरक्षा पूर्वक नहीं करने के कारण |
  • ज्वलनशील तरल/गेस की लाइनों में लीक होने के कारण |
  • मोटरों को अतिभार (Overload) होने के कारण 

“Fire in workshop” अध्याय, मुख्य अध्याय “Occupational safety and health” के अंतर्गत आता है जिसका अध्यन करने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें |

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व्यवसायिक सुरक्षा व स्वास्थ्य | Occupational safety and health

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किसी भी व्यवसाय अथवा प्रशिक्षण संस्थान की प्रगति के लिए उसमे कार्यरत कार्मिकों अथवा शिक्षार्थी की सुरक्षा अतिआवश्यक है, इसलिए प्रत्येक व्यवसाय में कार्मिकों की सुरक्षा को वरीयता दी जानी चाहिए | एक विधुत्कार को अपने कर्तव्यों एवं सुरक्षा का स्वयं ध्यान रखना चाहिए | किसी भी व्यवसाय के प्रबंधन को समय-समय पर अपने कार्मिकों को सुरक्षा से सम्बंधित उपायों का बोध करवाते रहना चाहिए तथा समय-समय पर सुरक्षा से सम्बंधित प्रशिक्षण देते रहना चाहिए |

एक व्यवसाय अथवा संसथान में प्रबंधन, कार्मिकों तथा शिक्षार्थीयों को अपने तथा अन्य के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना चाहिए तथा स्वस्थ रहने के प्रयास करने चाहियें क्योंकि एक स्वस्थ कार्मिक ही प्रगतिशील व्यवसाय का आधार होता है |

Occupational safety and health

दुर्घटना | Accident

दुर्घटना एक अनियंत्रित घटना है जिसका पहले से नियोजन नहीं होता है | दुर्घटना में किसी वस्तु अथवा जीव से क्रिया/प्रतिक्रिया के कारण चोट लगने, जान जाने अथवा किसी वस्तु की हानि होने की सम्भावना रहती है | अधिकतर दुर्घटनाएं इंसानी लापरवाही अथवा असावधानी के कारण होती है चाहे वह व्यवसाय में हो, कार्यशाला में हो या वाहन से हो | अतः दुर्घटना से बचने के लिए कार्य का प्रशिक्षण आवश्यक है तथा असावधानी व लापरवाही से बचते हुए उचित औजारों का प्रयोग करना चाहिए |

कार्यशाला में दुर्घटना होने पर पीड़ित व्यक्ति का प्राथमिक उपचार आवश्यक है जिसका वर्णन हमारी अन्य पोस्ट “कार्यशाला में प्राथमिक उपचार व सुरक्षा” में किया गया है |

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Occupational safety and health

कारखाने अथवा कार्यशाला में दुर्घटना होने के कारण | Reasons of accidents in factory or workshop

  • कार्य से सम्बंधित ज्ञान की कमी | Lack of work related knowledge :-
    व्यवसाय अथवा कार्यशाला में हम जिस कार्य को कर रहे हैं उसकी उचित जानकारी तथा ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि दुर्घटना होने का ये बहुत बड़ा कारण होता है | इसीलिए व्यवसाय में कार्मिकों को कार्य करने से पूर्व कार्य से सम्बंधित प्रशिक्षण दिया जाता है |
  • लापरवाही | Negligency :-
    व्यवसाय अथवा कार्यशालाओं में दुर्घटना होने एक बड़ा कारण है “लापरवाही”, क्योंकि अधिकतर दुर्घटनाएं कार्मिक अथवा प्रशिक्षु की लापरवाही से होती हैं | कार्मिक अथवा प्रशिक्षु को कार्य करते समय कार्य के प्रति एकाग्र होना चाहिए व सावधानी से कार्य करना चाहिए |
  • अरुचि | Lack of interest :-
    कार्य में दिलचस्पी नहीं होना भी दुर्घटना को दावत देता है | इसलिए किसी भी कार्य को करते समय उसमे दिलचस्पी लेना आवश्यक होता है |
  • नशा | Intoxication :-
    नशे में कार्य करने के कारण भी दुर्घटनाएं हो जाती हैं इसलिए नशा करके कार्य नहीं करना चाहिए तथा प्रबंधन को भी नशे पर रोक लगनी चाहिए | वैसे लगभग सभी व्यवसायों व कार्यशालाओं में नशा करना प्रतिबंधित होता है |
  • क्षमता से अधिक कार्य | Over capacity work :-
    प्रबंधन द्वारा कार्मिकों को क्षमता से अधिक कार्य आवंटित नहीं करना चाहिए | कार्मिक द्वारा उसकी क्षमता से अधिक कार्य करने के दौरान अक्सर दुर्घटना हो जाती है |
  • असुरक्षित पोशाक | Unsafe dress :-
    कार्य करते समय कारखाने अथवा कार्यशाला में मफलर, ढीले कपडे, टाई, चुन्नी, साड़ी इत्यादि प्रतिबंधित होती हैं | तथा कार्य की प्रकृति के अनुसार भी ड्रेस कोड होता है, कार्मिक अथवा प्रशिक्षु को जिसका जिसका पालन करना चाहिए | कारखाने में बनाये गए नियमों के अनुसार की पोशाक पहननी चाहिए | जैसे- सेफ्टी जूते, हेलमेट, चश्मा, एप्रेन इत्यादि |
  • जल्दबाजी | Haste :-
    प्रबंधन को कार्मिकों पर कार्य करने के लिए इतना अधिक दबाव नहीं देना चाहिए कि उससे दुर्घटना की सम्भावना बढ़ जाये | तथा कार्मिकों अथवा प्रशिक्षुओं को भी जल्दबाजी में कार्य नहीं करना चाहिए |
  • अनुशासनहीनता | Indiscipline :-
    कार्य करते समय अनुशासन में नहीं रहने के कारण भी कई बार दुर्घटना हो जाती है | जैसे कार्य करते समय किसी दूसरी चीज की और ध्यान जाना, मजाक करना, विपरीतलिंगी की और आकर्षित होना इत्यादि |
  • उचित औजार का प्रयोग नहीं करना | Not using proper tools :-
    गलत औजार से कार्य करने से भी दुर्घटना की सम्भावना बढ़ जाती है, इसलिए कार्य करते समय सही, उचित तथा अच्छे औजारों का प्रयोग करना चाहिए | प्रबंधन को भी उचित तथा अच्छे औजार उपलब्ध करवाने चाहिए तथा ख़राब हो चुके औजारों को कार्यस्थल से हटा देना चाहिए अथवा उनको ठीक करवाना चाहिए |
  • उत्सुकतावश कार्य करना | Work with curiocity :-
    अधिकतर नए प्रशिक्षु तथा कार्मिक उत्सुकता में कार्य करते हैं जिससे दुर्घटना की सम्भावना बढ़ जाती है इसलिए प्रबंधन द्वारा इस प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि प्रशिक्षु तथा कार्मिक उत्सुकता/जिज्ञासा में कार्य नहीं करें |
  • कार्यस्थल पर गंदगी | Garbage at work :-
    कार्यस्थल पर कचरा, तेल/ग्रीस इत्यादि पर फिसलने, अनावश्यक कबाड़ पड़ा होने से ठोकर खाकर गिरने, मशीन पर गंदगी जमा होने इत्यादि से भी दुर्घटना होने की सम्भावना रहती है |
  • थकान | Tiredness :-
    ओवर टाइम कार्य करने अथवा शरीर कमजोर होने से अक्सर थकान होने लगती है जिससे कार्य पर ध्यान नहीं लगता फलस्वरूप दुर्घटना होने की सम्भावना रहती है |
  • उचित प्रकाश ना होना | Lack of proper lighting :-
    कार्य स्थल पर अंधेरा होने के कारण भी दुर्घटना होने की सम्भावना रहती है |

Occupational safety and health

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सुरक्षा चिन्ह | Safety signs

Safety signs

सुरक्षा चिन्ह | Safety signs

प्रशिक्षण के दौरान प्रशिक्षु अथवा किसी भी कारखाने में कारीगर को कार्य करने से पूर्व सुरक्षा चिन्हों की जानकारी होना आवश्यक है | सुरक्षा चिन्हों की जानकारी के अभाव में कार्य करने के दौरान दुर्घटना होने की सम्भावना बढ़ जाती है | विभिन्न मशीनों तथा कारखाने अथवा कार्यशाला की दीवारों पर सुरक्षा चिन्ह बनाये जाते हैं |

निम्न 4 प्रकार के सुरक्षा चिन्ह होते हैं :-

  1. अनिवार्य सुरक्षा चिन्ह | Mandatory Safety sign
  2. निषेधात्मक सुरक्षा चिन्ह | Prohibitive Safety sign
  3. चेतावनी सुरक्षा चिन्ह | Warning Safety sign
  4. सूचनात्मक सुरक्षा चिन्ह | Informational Safety sign

1. अनिवार्य सुरक्षा चिन्ह | Mandatory Safety signs

किसी भी कारखाने/फेक्ट्री/कार्यशाला में ये सुरक्षा चिन्ह आवश्यक रूप से बनाने चाहियें तथा ऐसे स्थानों पर बनाने चाहिए जहां कारीगर/प्रशिक्षु को आसानी से दिखाई देवें |

इन चिन्हों की पृष्ठभूमि गोल तथा नीली होती है जिस पर सफ़ेद चिन्ह बना हुआ होता है |

कुछ अनिवार्य चिन्ह निम्न प्रकार हैं :-

Mandatory signs

2. निषेधात्मक सुरक्षा चिन्ह | Prohibitive Safety signs

कारखाने/फेक्ट्री/कार्यशाला में जो कार्य करना निषेध होता है उसे दर्शाने के लिए निषेधात्मक सुरक्षा चिन्ह बनाये जाते हैं | ये चिन्ह दर्शाते हैं कि इस स्थान पर ये कार्य करना मना है | 

इन चिन्हों की पृष्ठभूमि गोल तथा सफ़ेद होती है जिस पर काले रंग से चिन्ह बनाये जाते हैं तथा लाल रंग का बॉर्डर तथा क्रॉस लाइन बनाई जाती है |

कुछ निषेधात्मक चिन्ह निम्न प्रकार हैं :-

Prohibitive signs

3. चेतावनी सुरक्षा चिन्ह | Warning Safety signs

जिन चिन्हों द्वारा चेतावनी दी जाती है उन्हें चेतावनी चिन्ह कहा जाता है |

इन चिन्हों की पृष्ठभूमि त्रिभुजाकार तथा पीली होती है जिस पर काले रंग से चिन्ह बनाये जाते हैं |

कुछ चेतावनी चिन्ह निम्न प्रकार हैं :-

Warning signs

4. सूचनात्मक सुरक्षा चिन्ह | Informational Safety signs

इन चिन्हों द्वारा विभिन्न प्रकार की सूचना उपलब्ध की जाती है |

इन चिन्हों की पृष्ठभूमि वर्गाकार तथा हरी होती है जिस पर सफ़ेद रंग से चिन्ह बनाये जाते हैं | ये चिन्ह सफ़ेद पृष्ठभूमि पर लाल रंग से भी बनाये जा सकते हैं |

कुछ सूचनात्मक चिन्ह निम्न प्रकार हैं :-

Informational signs
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दिष्ट धारा पर परिणामित्र का प्रचालन | Running transformer on DC

Running transformer on DC

दिष्ट धारा पर परिणामित्र का प्रचालन | Running transformer on DC

“Running transformer on DC” पोस्ट में स्पस्ट समझाया गया है कि परिणामित्र (Transformer) दिष्ट धारा (DC) पर कार्य नहीं करता है | परिणामित्र, Mutual induction (पारस्परिक प्रेरण) के सिद्धांत पर कार्य करता है | चूंकि प्रेरण केवल AC में विधमान होता है इसलिए परिणामित्र केवल AC सप्लाई पर कार्य करता है | DC की आवृति शून्य होने के कारण इसमें प्रेरण विधमान नहीं होता है, इसलिए परिणामित्र DC पर कार्य नहीं करता है | परिणामित्र का उपयोग AC सप्लाई की वोल्टेज व करंट को कम या अधिक करने के लिए किया जाता है लेकिन परिणामित्र से सप्लाई की आवृति (Frequency) में कोई परिवर्तन नहीं होता है, जितनी आवृति की सप्लाई input में दी जाती है उतनी ही आवृति output में मिलती है |

ट्रांसफार्मर एक वाइंडिंग से दूसरी वाइंडिंग में AC सप्लाई का स्थानांतरण करता है जबकि दोनों वाइंडिंग का आपस में संपर्क नही होता है, ये स्थानांतरण प्रेरण के कारण होता है | प्रेरण के लिए AC सप्लाई का होना आवश्यक है क्योंकि DC सप्लाई की आवृति शून्य होने के कारण DC सप्लाई में प्रेरण विधमान नहीं होता है |

itiale.in

Running transformer on DC

यदि परिणामित्र को दिष्ट धारा सप्लाई दे दी जाये तो क्या होगा ?

इसका सीधा सा जवाब है- ट्रांसफार्मर जल जायेगा | क्योंकि ट्रांसफार्मर की प्राथमिक कुंडली में AC सप्लाई अथवा प्रत्यावर्ती धारा देने पर फ्लक्स में भी लगातार परिवर्तन (Fluctuate) होने के कारण द्वितीय कुंडली में Mutual inductian के कारण विधुत वाहक बल उत्पन्न होता है जिसे हम लोड को देते हैं | फ्लक्स परिवर्तन से स्वयं प्राथमिक कुंडली में भी एक अतिरिक्त प्रेरित विधुत वाहक बल पैदा होता है जिसे हम विरोधी विधुत वाहक बल (Back e.m.f.) कहते हैं | यह विरोधी विधुत वाहक बल प्राथमिक कुंडलन में प्रवाहित धारा को सीमित अथवा कम कर देता है जिससे कुंडलन ओवर हीट से जलती नहीं है |

यदि प्राथमिक कुंडलन को दिष्ट धारा (DC) से जोड़ दिया जाये तो धारा का प्रत्यावर्तन नहीं होने के कारण फ्लक्स का परिवर्तन नहीं होता है जिसके कारण प्राथमिक कुंडलन में विरोधि विधुत वाहक बल उत्पन्न नहीं होता है फलस्वरूप प्राथमिक कुंडली में अधिक धारा बहने से कुंडलन जल जाती है | अतः DC पर ट्रांसफार्मर के कार्य नहीं करने का सबसे बड़ा कारण है कुंडली में DC सप्लाई से, प्रेरित विधुत वाहक बल पैदा नहीं होना |

दिष्ट धारा (DC) पर ट्रांसफार्मर, शॉर्ट सर्किट के समान व्यवहार करता है |

Running transformer on DC

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प्रतिरोध व प्रतिरोधक | Resistance and Resistor​

Resistance and Resistor

प्रतिरोध व प्रतिरोधक | Resistance and Resistor

Resistors

” Resistance and Resistor ” पोस्ट में हम प्रतिरोध व प्रतिरोधक में अंतर समझेंगे |

प्रतिरोध- किसी पदार्थ का वह गुण जो उसमे से गुजरने वाली विधुत धारा के प्रवाह का विरोध करता है, प्रतिरोध (Resistance) कहलाता है | प्रतिरोध को R से दर्शाया जाता है तथा इसकी इकाई ओह्म (Ω) है | एक तरह से प्रतिरोध को करंट का दुश्मन भी माना जा सकता है | प्रतिरोध की गणना ओह्म के नियम द्वारा की जाती है |

प्रतिरोधक- तथा ऐसा पदार्थ जो विधुत धारा के प्रवाह में एक निश्चित मान का प्रतिरोध उत्पन्न करे, प्रतिरोधक (resistor) कहलाता है | प्रतिरोधक विभिन्न मानों के बनाये जाते हैं, जैसे 1Ω, 100µΩ, अथवा 2KΩ इत्यादि |

उदाहरण- नीचे चित्र में एक 1000Ω का प्रतिरोधक दिया गया है | अतः इस अवयव को हम प्रतिरोधक कहेंगे तथा इस प्रतिरोधक का विधुत धारा के प्रवाह का विरोध करने का गुण  प्रतिरोध कहलायेगा |

प्रतिरोधक का उपयोग- प्रतिरोधक का उपयोग इलेक्ट्रिकल अथवा इलेक्ट्रॉनिक परिपथों में करंट के मान को कम करने के लिए किया जाता है | पोस्ट में सबसे ऊपर कुछ प्रतिरोधकों (Resistors) के चित्र दिए गए हैं |

 यदि किसी प्रतिरोधक का विभवान्तर 1V हो तथा उसमे से 1A धारा का प्रवाह हो रहा हो तो उस प्रतिरोधक का प्रतिरोध 1Ω होगा

Resistance and resistor
Symbol of Resistors

यहां हम यह भी कह सकते हैं कि किसी प्रतिरोधक के दोनों सिरों के मध्य विभवान्तर तथा उस प्रतिरोधक में से बह रही धारा का अनुपात उस प्रतिरोधक का प्रतिरोध कहलाता है |

Resistance and Resistor

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प्रतिरोध सम्बन्धी कारक | Resistance factors

किसी भी चालक/अचालक/अर्धचालक का प्रतिरोध हमेशा समान नहीं होता, प्रतिरोध को प्रभावित करने वाले वाले कारक निम्न प्रकार हैं जिन पर किसी भी चालक/अचालक/अर्धचालक का प्रतिरोध निर्भर करता है |

  • चालक की मोटाई- किसी भी चालक का प्रतिरोध उसकी मोटाई पर निर्भर करता है | चालक का प्रतिरोध उसकी मोटाई अथवा अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल के विलोमानुपाती होता है अर्थात चालक की मोटाई बढ़ाने पर प्रतिरोध कम हो जाता है तथा चालक की मोटाई कम होने पर प्रतिरोध अधिक हो जाता है |
    उदाहरण- माना किसी 1mm² के चालक का प्रतिरोध 1Ω है तो समान लम्बाई तथा समान पदार्थ के 2mm² के चालक का प्रतिरोध 0.5Ω होगा |
  • चालक की लम्बाई- किसी भी चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई पर भी निर्भर करता है | चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई के समानुपाती होता है अर्थात चालक की लम्बाई बढ़ाने पर प्रतिरोध भी बढ़ जाता है तथा चालक की लम्बाई घटाने पर प्रतिरोध भी घट जाता है |
    उदाहरण- माना किसी 1 मीटर लम्बाई के चालक का प्रतिरोध 1Ω है तो समान मोटाई तथा समान पदार्थ के 2 मीटर लम्बाई के चालक का प्रतिरोध 2Ω होगा |

    R ∝ l/a
    यहां- R= प्रतिरोध,   l= चालक की लम्बाई,   a= चालक का अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल
  • पदार्थ- चालक का प्रतिरोध चालक के पदार्थ पर भी निर्भर करता है | अलग-अलग पदार्थ के अलग-अलग गुण होते हैं, उसी प्रकार अलग-अलग पदार्थों का प्रतिरोध भी अलग-अलग होता है | 
    जैसे-  अन्य कारक समान होने पर एक तांबे के तार का प्रतिरोध, एल्युमीनियम के तार के प्रतिरोध से कम होता है तथा एक एल्युमीनियम के तार का प्रतिरोध लोहे के तार के प्रतिरोध से कम होता है | इसीलिए कम प्रतिरोध होने के कारण अधिकतर तांबे के तार का प्रयोग किया जाता है |
  • तापमान- चालक का प्रतिरोध उसके तापमान पर भी निर्भर करता है | धातुओं का प्रतिरोध तापमान बढ़ने से बढ़ जाता है, तथा प्रतिरोधकों का प्रतिरोध तापमान बढ़ने से घट जाता है |

Resistance and Resistor

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किरचॉफ के नियम | Kirchhoff’s laws

kirchhoffs laws

किरचॉफ के नियम | Kirchhoffs laws

रूसी वैज्ञानिक “किरचॉफ” ने दिष्ट धारा परिपथों में वोल्टता व धारा से सम्बंधित दो नियमों का प्रतिपादन किया जिन्हें किरचॉफ के नियम कहा जाता है | कुछ जटिल परिपथों की गणनाओं में ओह्म का नियम कारगर नहीं होता वहां किरचॉफ के नियमों का प्रयोग किया जाता है | किरचॉफ के दो नियम निम्न प्रकार हैं :-

  1. धारा का नियम (Current law) / किरचॉफ का प्रथम नियम
  2. वोल्टता का नियम (Voltage law) / किरचॉफ का द्वितीय नियम 

1. धारा का नियम (Current law) / किरचॉफ का प्रथम नियम

किरचॉफ के धारा के नियम को बिंदु नियम भी कहा जाता है | 

इस नियम के अनुसार किसी बंद दिष्ट धारा परिपथ (DC Circuit) में चालकों के संगम पर धाराओं का बीजगणितीय योग शून्य होता है |
  Σ I = 0

अथवा 

किसी बंद दिष्ट धारा परिपथ में किसी संगम (node) की और आने वाली विधुत धाराओं का योग, संगम से दूर जाने वाली धाराओं के योग के बराबर होता है | इसे हम निम्न चित्र से समझ सकते हैं :- 

kirchhoffs laws
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2. वोल्टता का नियम (Voltage law) / किरचॉफ का द्वितीय नियम

किरचॉफ के वोल्टता के नियम को मेश (Mesh) नियम भी कहा जाता है |

इस नियम के अनुसार किसी बंद दिष्ट धारा परिपथ (DC Circuit) में आरोपित विधुत वाहक बलों का बीजगणितीय योग तथा परिपथ की प्रत्येक शाखाओं में हुए वोल्टेज ड्रोपों का बीजगणितीय योग समान होता है |
Σ E = Σ I.R
इसे हम निम्न चित्र से समझ सकते हैं :-

kirchhoffs laws

kirchhoffs laws

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ओह्म के नियम सम्बन्धी पद Ohm’s law related terms

ओह्म के नियम सम्बन्धी पद

ओह्म के नियम सम्बन्धी पद Ohm's law related terms

ओह्म का नियम DC परिपथों में प्रतिरोध (R), धारा (I) तथा विभवान्तर (V) से सम्बंधित नियम है जिसे जर्मन के एक वैज्ञानिक जी.एस.ओम के द्वारा बनाया गया था इस लिए इस नियम का नाम “ओह्म का नियम” रखा गया |  ओह्म के नियम को विस्तार से हमारी अन्य पोस्ट “ओह्म का नियम” में समझाया गया है |

ओह्म के नियम को कुछ स्थानों पर नहीं लगाया जा सकता अर्थात इसकी कुछ सीमायें हैं जो निम्न प्रकार हैं :-

  • निर्वात बल्बों में ओह्म का नियम लागू नहीं होता |
  • ऐसी धातु पर ओह्म का नियम लागू नहीं होता जिनमे से विधुत धारा गुजारने पर वो अत्यधिक गर्म होती हैं क्योंकि गर्म होने पर धातुओं का प्रतिरोध एक समान नहीं रहता
  • आर्क लैम्प में ओह्म का नियम लागू नही होता |
  • अर्धचालकों में ओह्म का नियम लागू नही होता |
  • डायोड व ट्रांजिस्टर इत्यादि पर ओह्म का नियम लागू नहीं होता क्योंकि इनमे केवल एक तरफ धारा का प्रवाह होता है, दूसरी तरफ या तो बहुत कम प्रवाह होता है अथवा बिलकुल नहीं होता |
  • ऐसे प्रयोगों में ओह्म का नियम लागू नही होता जिनमे किसी इलैक्ट्रोड से अत्यधिक गैसें निकलती हैं |
  • AC (प्रत्यावर्ती धारा) में ओह्म का नियम लागु नहीं होता | AC में ओह्म का नियम लगाने के लिए R के स्थान पर Z लिया जाता है |
  • गैर-रैखिक घटकों (non-linear Components) पर ओह्म का नियम लागू नही होता | गैर-रैखिक घटक वे होते हैं जिनमें करंट, प्रभावी वोल्टेज के  समानुपाती नहीं होता है, जैसे- कैपेसिटेंस, थाइरिस्टर, इलेक्ट्रिक आर्क इत्यादि |

ओह्म के नियम सम्बन्धी पद

प्रतिरोध | Resistance

किसी पदार्थ का वह गुण जो उसमे से गुजरने वाली विधुत धारा के प्रवाह का विरोध करता है, प्रतिरोध कहलाता है | प्रतिरोध को R से दर्शाया जाता है तथा इसकी इकाई ओह्म (Ω) है |

प्रतिरोधक | Resistor

ऐसा पदार्थ जो विधुत धारा के प्रवाह में एक निश्चित मान का प्रतिरोध उत्पन्न करे, प्रतिरोधक (resistor) कहलाता है | प्रतिरोधक विभिन्न मानों के बनाये जाते हैं, जैसे 1Ω, 100µΩ, अथवा 2KΩ इत्यादि |

प्रतिरोधक व प्रतिरोध में अंतर :-

कुछ छात्रों को “प्रतिरोधक” व “प्रतिरोध” के नाम में भ्रम पैदा होता हैं | प्रतिरोधक एक अवयव अथवा पुर्जा होता है जो इलेक्ट्रॉनिक/इलेक्ट्रिकल परिपथों में लगाया जाता है जो कि करंट के प्रवाह को कम करने का काम करता है | तथा प्रतिरोधक के करंट के प्रवाह को कम करने के गुण को प्रतिरोध कहते हैं |

प्रतिरोध सम्बन्धी कारक | Resistance factors

किसी भी चालक/अचालक/अर्धचालक का प्रतिरोध हमेशा समान नहीं होता, प्रतिरोध को प्रभावित करने वाले वाले कारक निम्न प्रकार हैं जिन पर किसी भी चालक/अचालक/अर्धचालक का प्रतिरोध निर्भर करता है |

  • चालक की मोटाई- किसी भी चालक का प्रतिरोध उसकी मोटाई पर निर्भर करता है | चालक का प्रतिरोध उसकी मोटाई अथवा अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल के विलोमानुपाती होता है अर्थात चालक की मोटाई बढ़ाने पर प्रतिरोध कम हो जाता है तथा चालक की मोटाई कम होने पर प्रतिरोध अधिक हो जाता है |
    उदाहरण- माना किसी 1mm² के चालक का प्रतिरोध 1Ω है तो समान लम्बाई तथा समान पदार्थ के 2mm² के चालक का प्रतिरोध 0.5Ω होगा |
  • चालक की लम्बाई- किसी भी चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई पर भी निर्भर करता है | चालक का प्रतिरोध उसकी लम्बाई के समानुपाती होता है अर्थात चालक की लम्बाई बढ़ाने पर प्रतिरोध भी बढ़ जाता है तथा चालक की लम्बाई घटाने पर प्रतिरोध भी घट जाता है |
    उदाहरण- माना किसी 1 मीटर लम्बाई के चालक का प्रतिरोध 1Ω है तो समान मोटाई तथा समान पदार्थ के 2 मीटर लम्बाई के चालक का प्रतिरोध 2Ω होगा |

    R ∝ l/a
    यहां- R= प्रतिरोध,   l= चालक की लम्बाई,   a= चालक का अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल
  • पदार्थ- चालक का प्रतिरोध चालक के पदार्थ पर भी निर्भर करता है | अलग-अलग पदार्थ के अलग-अलग गुण होते हैं, उसी प्रकार अलग-अलग पदार्थों का प्रतिरोध भी अलग-अलग होता है | 
    जैसे-  अन्य कारक समान होने पर एक तांबे के तार का प्रतिरोध, एल्युमीनियम के तार के प्रतिरोध से कम होता है तथा एक एल्युमीनियम के तार का प्रतिरोध लोहे के तार के प्रतिरोध से कम होता है | इसीलिए कम प्रतिरोध होने के कारण अधिकतर तांबे के तार का प्रयोग किया जाता है |
  • तापमान- चालक का प्रतिरोध उसके तापमान पर भी निर्भर करता है | धातुओं का प्रतिरोध तापमान बढ़ने से बढ़ जाता है, तथा प्रतिरोधकों का प्रतिरोध तापमान बढ़ने से घट जाता है |

विशिष्ट प्रतिरोध | Specific resistance :-

किसी पदार्थ के इकाई घन की आमने-सामने की फलकों के बीच का प्रतिरोध उस पदार्थ का विशिष्ट प्रतिरोध या प्रतिरोधकता (Resistivity) कहलाता है | साधारण शब्दों में कहें तो किसी पदार्थ के एक मीटर लम्बे, एक मीटर चौड़े तथा एक मीटर उंचे (एक घन मीटर) टुकड़े के आमने-सामने के फलकों के बीच मापा गया प्रतिरोध उस पदार्थ का विशिष्ट प्रतिरोध या प्रतिरोधकता कहलाता है जिसे निम्न चित्र में दर्शाया गया है | विशिष्ट प्रतिरोध का प्रतीक Rho (ρ) तथा इसका SI मात्रक ओह्म मीटर है व इसे ओह्म सेमी तथा ओह्म इंच में भी मापा जाता है |

Specific resistance or resistivity

उदाहरण- तांबे का विशिष्ट प्रतिरोध 1.7/100000000 Ωm है अर्थात ताम्बे के एक मीटर लम्बे, एक मीटर चौड़े तथा एक मीटर उंचे टुकड़े के आमने-सामने के फलकों के बीच प्रतिरोध 1.7/100000000 = 0.000000017 Ω होता है |

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चालकता | Conductivity :-

किसी पदार्थ का अपने में से विधुत धारा के प्रवाह को सुगमता प्रदान करने का गुण चालकता अथवा विधुत चालकता अथवा विशिष्ट चालकता कहलाता है अर्थात जिस पदार्थ की चालकता जितनी अधिक होगी उसमे से विधुत धारा का प्रवाह उतना ही सुगमता से होगा | चालकता, प्रतिरोधकता का विपरीत होता है अर्थात जिस पदार्थ की चालकता जितनी अधिक होगी उसका प्रतिरोध उतना ही कम होगा तथा चालकता जितनी कम होगी प्रतिरोध उतना ही अधिक होगा | जिस प्रकार प्रतिरोध, पदार्थ में से विधुत धारा को बहने से से रोकता है उसी प्रकार चालकता, विधुत धारा के प्रवाह को सुगमता प्रदान करती है |

चालकता की इकाई ℧ (Mho) होती है | (जबकि प्रतिरोध की इकाई Ω (Ohm) होती है ) चालकता को G से दर्शाया जाता है |

G=1R

हां
G=चाता
R=प्रतिरो

“ओह्म के नियम सम्बन्धी पद” पोस्ट में हमने ओह्म के नियम सम्बन्धी पदों का अध्यन किया है | ओह्म के नियम का अध्यन एक अन्य पोस्ट “ओह्म का नियम” में किया गया है |

ओह्म के नियम सम्बन्धी पद ओह्म के नियम सम्बन्धी पद

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